Wednesday, September 5, 2012

9 नवम्बर 2000 मूल निवासी को मिले हर अधिकारजय हो उत्तराखंड की सरकार

उत्तराखंड आने वाले नवम्बर माह की 9 तारीख को 11 साल पूरे करके 12 साल में प्रवेश करेगा। किसी राज्य को किस दिशा मंे आगे बढ़ना है उसकी दिशा और दशा तय करने के लिए 12 साल कम नहीं होते । अलग राज्य निर्माण के पीछे कई कारण थे। जिनमें पलायन की छटपटाहट थी,सहूलियतों के आभाव में सूने होते गंावों की पीड़ा थी। रोजी रोटी के लिए महानगरों के आलीशान होटलोंे में मसालची,वेटर, और तंदूर की सदाबहार सुलगती आग में अपने पसीने को सुखाकर सुदूर गांवों में अपने परिजनों के पेट की आग को बुझाने का दर्द था। पहाड़ की तबाह होती संस्कृति को बचाने की जद्दोजहद थी। जल,जंगल और जमीन का सवाल था। इसके अलावा और भी कई कारण थे। लेकिन पिछले 11 सालों में कोई भी सरकार उत्तराखंड को अपने पड़ोसी हिमाचल जैसा रूप नहीं दे पाई । हालांकि विदेशी मुल्कों की सीमाओं से हिमाचल के मुकाबले उत्तराखंड ज्यादा सटा है। हालात बेहद खतरनाक बन रहे हैं। संवेदनशील और संघर्षशील जमात हालांकि महानगरीय जीवनशैली की नकल करते इस पहाड़ी राज्य में उनकी तादाद बहुत कम है लेकिन सबके सीनों में आक्रोश का बारूद जमा हो रहा है। डर लग रहा है उस दिन की कल्पना से जिस दिन मुट्ठीभर असली उत्तराखंडी अपने असली पहाड़ी राज्य के लिए जंग का ऐलान कर देंगे। क्या होगा उस दिन ? क्योंकि राज्य निर्माण के लिए 90 के दशक में विद्रोह का बारूद चंद सीनों में ही ब्लाॅस्ट हुआ था लेकिन उसकी चिनगारी से समूची पहाड़ी बिरादरी झुलस उठी थी। हर वो शख्स जिसने अपने गांव से बेइंतहा मुहब्बत की थी लेकिंन सहूलियतों के आभाव में जिसके खून पसीने को जवानी के दिनों में रक्तपिपासु महानगरांे ने चूस लिया ।उसके गांव ने उसे गबरू जवान बनाया और मुल्क के महानगरों ने उसका पिंड तब छोड़ा जब उसकी हड्डियों का कमचूर निकल गया । जवानी के सब्जबाग बुढ़ापे की पथरीली चट्टान पर टकराकर कांच की मांनिद बिखर गए। पुरखों की विरासत से हाथ धो चुकी वो जमात पूरी जवानी सोचती रही एक दिन वह अपने गांव फिर लौटेगा ।लेकिंन हो नही पाया। बुढापे की बेबसी ने उसे देहरादून, हल्द्वानी,हरिद्वार और कोटद्वार जैसे कस्बों में सिमटा दिया। पुरखों की सैकड़ों नाली जमीन से दूर पांच विश्वा की चारदीवारी के भीतर उसके जवानी के दिनों के स्वप्न उसे झिंझोड़ने लगे। सहूलियतों के आभावों में पैदा हुई इस जमात की अगली नस्ल महानगरों की सहूलियतों में पैदा हुई है। बाप से दादा-परदादा , खेत-खलिहान, गाय भैंस के असली दूध-घी, बांझ-बुरांश, किनगोड़-हिंसर, आडू-अखोड़, बदाम खुमानी पुलम के किस्से गांव की सैकड़ों नाली पहाड़ी जमीन के किस्से उसे पहाडी होने का अहसास पैदा करा रहे हैं। वो अपनी जड़ों की ओर लौटने के लिए असमंजस में है। लेकिन लौटे तो लौटे कैसे? बोली-भाषा,रीति-रिवाज वो भूल चुका है। ऊपर से सहूलियतों का मंत्र अभी तक सत्ता के तांत्रिकों ने गांवों की ओर नहीं मारा है। हालात ये हैं कि ़दूसरे राज्यों के धन्ना सेठों के लिए उत्तराखंड सैरगाह बन गई है जबकि दिहाड़ी मजदूरी करने वाले गैर उत्तराखंडियों के लिए राज्य खाला का घर बन गया है। जहां मरजी आई वहीं कब्जा दिया। नेपाली मजदूर पहाड़ों में मौरूसीदार बन बैठे हैं तो मैदानों में बरसाती नदी नालों की जमीन पर बिहारी,उडि़या,पूरबिया,बंगाली मजदूरों का कब्जा है। माननीय न्यायालय ने भी इस पहाड़ी राज्य के साथ शानदार इंसाफ किया है, फैसला दे दिया कि जो राज्य बनने के दिन यहां था वो यहां का मूल निवासी । राज्य निर्माण आंदोलन में उसका या उसके पूर्वज का कोई योगदान था या नहीं इस बात का कहीं कोई जिक्र नही हुआ । जबकि इस देश में बोली-भाषा के आधार पर राज्य बने हैं बावजूद इसके किसी ने कुछ नहीं पूछा।ं इंसाफ के घन से राज्य के सीने मे मूल निवासी की कील ठोक दी । 9 नवम्बर 2000 मूल निवासी को मिले हर अधिकार। सवाल उठता है राज्य को संस्कृतिक प्रदूषण से बचाने के लिए किस अदालत की दहलीज मे मत्था टेका जाए । क्या राज्य सरकार में है इतनी हिम्मत कि ये उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय मे मजबूत दलीलों के साथ चुनौती दे सके। सवाल ये भी है क्या हिमाचल ,मणिपुर, आसम, नागालैंड, मिजोरम, सिक्किम, पश्चिम बंगाल,त्रिपुरा और जम्मू-कश्मीर में आज की तारीख पर किसी भी दूसरे प्रदेश को जमीन खरीदकर वहां का मूल निवासी बनने का अधिकार मिल सकता है। अगर नही ंतो फिर उत्तराखंड की सरकार कुंभकर्णी नींद में क्यों सो रही है? आखिर दिल बड़ा करने का टेंडर उत्तराखंड के नाम पर ही क्यों छूटता है ? सुना तो ये है कि अबकी बार कानून के जानकार के हाथ में राज्य की सत्ता है ।तो फिर क्या उम्मीद जताई जा सकती है कि राज्य को संास्कृतिक प्रदूषण से मुक्ति मिल जाएगी ।