Thursday, April 14, 2011

बदहाल है कप्तान धौनी का गांव
पैदल चलना है गांव वालों की तकदीर
सहूलियतों के आभाव मे जी रहा है गांव
अल्मोड़ा जिले का ल्वाली गांव है माही का
बेहद दूर है गांव का स्कूल
ठेकेदार को आईना दिखा रही है स्कूल की इमारत
महिला चिकित्सक नही है अस्पताल मे
कब मिलेगा इस गांव को सहूलियतों का तोहफा ?

महेंद्र सिंह धौनी को आज किसी पहचान की जरूरत नही है। झारखंड के मैदानों मे क्रिकेट का ककहरा सीखने वाले माही पर आज सारा देश गर्व करता है। किस्मत का धनी धौनी जिस चीज को छू लेता है वो सोना बन जाती है। लेकिंन जिस गांव मे माही के पिता ने जन्म लिया वो गांव आज भी बदहाली के दामन मे लिपटा है। यानि माही का पैतृक गांव मे अलग राज्य बनने के बाद भी सहूलियतों के चिराग नही जले। जी हां यकीन मानिये उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले मे है विश्वविजेता महेंद्र सिंह धोनी का गांव । नाम है ल्वाली तहसील है जैती। पेश है ल्वाली गांव की बदहाली पर रिर्पोट ,
वीओ- 28 साल बाद भारत को क्रिकेट का बादशाह बनाने वाले सहासिक कप्तान महेंद्र सिंह धोनी को आज पूरा भारत सिर आंखों पर बिठा रहा है। पूरे देश मे भारतीय कप्तान पर लाड प्यार और दौलत लुटाई जा रही है। उत्तराखंड सरकार धोनी को उत्तराखंड रत्न देने का ऐलान कर चुकी है । क्योंकि दुनिया के सामने देश को गौरव दिलाने वाले माही का पैतृक गांव उत्तराखंड मे हैं। उनके गांव का नाम है ल्वाली...जो सूबे के अल्मोड़ा जिले की जैती तहसील के भीतर आता है। इस गांव मे बदहाली का ऐसा आलम है जिसे देखकर रूह कांप उठती है। न सड़को की सहूलियत न स्कूल की इमारत दुरूस्त। मीलों मील का पैदल सफर कर तालीम लेने वालों को स्कूल पंहुचना पड़ता है। आधे से ज्यादा वक्त सफर मे खत्म हो जाता है । ऐसे मे पढ़ाई क्या होगी ये तो भगवान ही जानता है या फिर पढ़ने वाले जानते होंगे। धोनी के पैतृक गांव ल्वाली पहुंचना हंसी का खेल नही। यहां पहुंचने के लिये गांव वालों को खतरों का खिलाड़ी बनना पड़ता है। तकनीक और सहूलियतों के दौर मे मीलों मील का पैदल सफर करना शायद यहां के हर आदमी की तकदीर मे लिखा है। जिन पहाड़ांे का पानी मैदानों की प्यास बुझाता है उसी पहाड़ के ल्वाली गांव मे नल बूंद-बूंद पानी टपकाते हैं। अस्पताल की इमारत शानदार है। लेंिकंन लोहे के बंद दरवाजे उस हकीकत का कच्चा चिट्ठा खोलने की काबिलियत रखते हैं कि यहां बीमारों की हालत क्या होती होगी। बहरहाल धौनी के इस पैतृक गांव मे क्रिकेट का जूनून सिर चढ़कर बोलता है। हर बच्चा बिना सहूलियत के ही क्रिकेट खेलता है। डंडिया विकेट बनती है , बेडोल लकड़ी बल्ला बनता है और जुराबें गेंद । हौंसला है लेकिंन सहूलियतों का तकाजा हौसले की राह मे रोड़े से कम नही। इस गांव के लाल ने जैसे ही छक्का मारकर भारत को विश्वविजेता बनाया। सहूलियतों की अभाव मे जी रहे इस गांव मे खुशी की लहर दौड़ गई। लोग भूल गये कि यहां सड़क नही है । यहां के स्कूल की इमारत दरारों के दामन से लिपटी है या यहां बीमार होने पर मौत नजदीक दिखाई देती है। उन्हें सिर्फ अपना माही याद रहा जिसका ये गांव है। माही के चाचा चाहते हैं कि उनका विश्वविजेता भतीजा इस गांव आये लेकिंन वो शायद ये भी जानते हैं कि अगर सहूलियत ही होती तो माही के पिता पलायन न करते। रोजी -रोटी की तलाश मे सुदूर झारखंड न जाते। जिस माही पर आज झारखंड गर्व कर रहा है उस माही पर उनका राज्य गर्व करता। बहरहाल सवाल ये है कि जिस कप्तान की कामयाबी पर सारा देश नेमतों की बौछार कर रहा है उस कप्तान के पैतृक गांव को कब सूबे की सरकार सहूलियतों का वरदान देकर चिरंजीवी भवः का आर्शीवाद देगी।